स्वामी दयानन्द सरस्वती जीवनी | Biography of Dayananda Saraswati in Hindi Jivani

Author: in January 13, 2024
Dayanand saraswati biography in hindi

स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक धर्म में विश्वास रखते थे। उन्होंने राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियों एवम अन्धविश्वासो का सदैव विरोध किया। उन्होंने समाज को नयी दिशा एवम वैदिक ज्ञान का महत्व समझाया। इन्होने कर्म और कर्मो के फल को ही जीवन का मूल सिधांत बताया। यह एक महान विचारक थे, इन्होने अपने विचारों से समाज को धार्मिक आडम्बर से दूर करने का प्रयास किया। यह एक महान देशभक्त थे, जिन्होंने स्वराज्य का संदेश दिया, जिसे बाद में बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया और स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार हैं का नारा दिया। देश के कई महान सपूत स्वामी दयानंद सरस्वती जी के विचारों से प्रेरित थे और उनके दिखाये मार्ग पर चलकर ही उन सपूतों ने देश को आजादी दिलाई।

स्वामी दयानंद सरस्वती जीवनी (Swami Dayanand Saraswati Biography in Hindi)

इनका प्रारम्भिक नाम मूलशंकर अंबाशंकर तिवारी था, इनका जन्म सन 1824 को टंकारा गुजरात में हुआ था। यह एक ब्राह्मण कूल से थे। पिता एक समृद्ध नौकरी पेशा व्यक्ति थे इसलिए परिवार में धन धान्य की कोई कमी ना थी।

जन्म नाम   मूलशंकर तिवारी
जन्म सन 1824
मृत्युसन 1883
माता पिता अमृत बाई – अंबाशंकर तिवारी
शिक्षा वैदिक ज्ञान
गुरु विरजानन्द
कार्य समाज सुधारक, आर्य समाज के संस्थापक

स्वामी दयानन्द सरस्वती जो कि आर्य समाज के संस्थापक के रूप में पूज्यनीय हैं। यह एक महान देशभक्त एवम मार्गदर्शक थे, जिन्होंने अपने कार्यो से समाज को नयी दिशा एवं उर्जा दी। महात्मा गाँधी जैसे कई वीर पुरुष स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे। स्वामी जी का जन्म सन 1824 को हुआ। वे जाति से एक ब्राह्मण थे और इन्होने शब्द ब्राह्मण को अपने कर्मो से परिभाषित किया। ब्राह्मण वही होता हैं जो ज्ञान का उपासक हो और अज्ञानी को ज्ञान देने वाला दानी। स्वामी जी ने जीवन भर वेदों और उपनिषदों का पाठ किया और संसार के लोगो को उस ज्ञान से लाभान्वित किया। इन्होने मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया। निराकार ओमकार में भगवान का अस्तित्व है, यह कहकर इन्होने वैदिक धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया।वर्ष 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की। 1857 की क्रांति में भी स्वामी जी ने अपना अमूल्य योगदान दिया। अंग्रेजी हुकूमत से जमकर लौहा लिया और उनके खिलाफ एक षड्यंत्र के चलते साल 1883 को उनकी मृत्यु हो गई।

महर्षि दयानंद सरस्वती सन्यास (Swami Dayanand Saraswati Retirement)

एक घटना के बाद इनके जीवन में बदलाव आया और इन्होने 1846, 21 वर्ष की आयु में सन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा ली। उनमे जीवन सच को जानने की इच्छा प्रबल थी, जिस कारण उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था, इसलिए ही इन्होने अपने विवाह के प्रस्ताव को ना बोल दिया। इस विषय पर इनके और इनके पिता के मध्य कई विवाद भी हुए पर इनकी प्रबल इच्छा और दृढता के आगे इनके पिता को झुकना पड़ा। इनके इस व्यवहार से यह स्पष्ट था, कि इनमे विरोध करने एवम खुलकर अपने विचार व्यक्त करने की कला जन्म से ही निहित थी। इसी कारण ही इन्होने अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया और देश को आर्य भाषा अर्थात हिंदी के प्रति जागरूक बनाया।

कैसे बदला स्वामी जी का जीवन (Swami Dayanand Saraswati Life Change)

स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम मूलशंकर तिवारी था, यह एक साधारण व्यक्ति थे, जो सदैव पिता की बात का अनुसरण करते थे। जाति से ब्राह्मण होने के कारण परिवार सदैव धार्मिक अनुष्ठानों में लगा रहता था। एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर इनके पिता ने इनसे उपवास करके विधि विधान के साथ पूजा करने को कहा और साथ ही रात्रि जागरण व्रत का पालन करने कहा। पिता के निर्देशानुसार मूलशंकर ने व्रत का पालन किया, पूरा दिन उपवास किया और रात्रि जागरण के लिये वे शिव मंदिर में ही पालकी लगा कर बैठ गये। अर्धरात्रि में उन्होंने मंदिर में एक दृश्य देखा, जिसमे चूहों का झुण्ड भगवान की मूर्ति को घेरे हुए हैं और सारा प्रशाद खा रहे हैं। तब मूलशंकर जी के मन में प्रश्न उठा, यह भगवान की मूर्ति वास्तव में एक पत्थर की शिला ही हैं, जो स्वयम की रक्षा नहीं कर सकती, उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं ? उस एक घटना ने मूलशंकर के जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव डाला और उन्होंने आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना घर छोड़ दिया और स्वयं को ज्ञान के जरिये मूलशंकर तिवारी से महर्षि दयानंद सरस्वती बनाया।

1857 की क्रांति में योगदान (Swami Dayanand Saraswati 1857 War)

1846 में घर से निकलने के बाद उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ बोलना प्रारम्भ किया, उन्होंने देश भ्रमण के दौरान यह पाया, कि लोगो में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश हैं, बस उन्हें उचित मार्गदर्शन की जरुरत है, इसलिए उन्होंने लोगो को एकत्र करने का कार्य किया। उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे, उन में तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि थे, इन लोगो ने स्वामी जी के अनुसार कार्य किया। लोगो को जागरूक कर सभी को सन्देश वाहक बनाया गया, जिससे आपसी रिश्ते बने और एकजुटता आये। इस कार्य के लिये उन्होंने रोटी तथा कमल योजना भी बनाई और सभी को देश की आजादी के लिए जोड़ना प्रारम्भ किया। इन्होने सबसे पहले साधू संतो को जोड़ा, जिससे उनके माध्यम से जन साधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके।

हालाँकि 1857 की क्रांति विफल रही, लेकिन स्वामी जी में निराशा के भाव नहीं थे, उन्होंने यह बात सभी को समझायी। उनका मानना था कई वर्षो की गुलामी एक संघर्ष से नही मिल सकती, इसके लिए अभी भी उतना ही समय लग सकता है, जितना अब तक गुलामी में काटा गया हैं। उन्होंने विश्वास दिलाया कि यह खुश होने का वक्त हैं, क्यूंकि आजादी की लड़ाई बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं और आने वाले कल में देश आजाद हो कर रहेगा। उनके ऐसे विचारों ने लोगो के हौसलों को जगाये रखा। इस क्रांति के बाद स्वामी जी ने अपने गुरु विरजानंद के पास जाकर वैदिक ज्ञान की प्राप्ति का प्रारम्भ किया और देश में नये विचारों का संचार किया। अपने गुरु के मार्ग दर्शन पर ही स्वामी जी ने समाज उद्धार का कार्य किया।

जीवन में गुरु का महत्व (Guru Imortance in life):

ज्ञान की चाह में ये स्वामि विरजानंद जी से मिले और उन्हें अपना गुरु बनाया। विरजानंद ने ही इन्हें वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करवाया। इन्हें योग शास्त्र का ज्ञान दिया। विरजानंद जी से ज्ञान प्राप्ति के बाद जब स्वामी दयानंद जी ने इनसे गुरु दक्षिणा का पूछा, तब विरजानंद ने इन्हें समाज सुधार, समाज में व्याप्त कुरूतियों के खिलाफ कार्य करने, अंधविश्वास को मिटाने, वैदिक शास्त्र का महत्व लोगो तक पहुँचाने, परोपकार ही धर्म हैं, इसका महत्व सभी को समझाने जैसे कठिन संकल्पों में बाँधा और इसी संकल्प को अपनी गुरु दक्षिणा कहा।

गुरु से मार्गदर्शन मिलने के बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने समूचे राष्ट्र का भ्रमण प्रारम्भ किया और वैदिक शास्त्रों के ज्ञान का प्रचार प्रसार किया। उन्हें कई विपत्तियों का सामना करना पड़ा, अपमानित होना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी अपना मार्ग नहीं बदला। इन्होने सभी धर्मो के मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया और उनमे व्याप्त बुराइयों का खुलकर विरोध किया। इनका विरोध ईसाई, मुस्लिम धर्म के अलावा सनातन धर्म से भी था। इन्होने वेदों में निहित ज्ञान को ही सर्वोपरि एवम प्रमाणित माना। अपने इन्ही मूल भाव के साथ इन्होने आर्य समाज की स्थापना की।

आर्य समाज स्थापना (Aarya Samaj Stabilish)

वर्ष 1875 में इन्होने गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था। इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था। ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी, जिससे कई महान विद्वान प्रेरित हुए। कईयों ने स्वामी जी का विरोध किया, लेकिन इनके तार्किक ज्ञान के आगे कोई टिक ना सका। बड़े – बड़े विद्वानों, पंडितों को स्वामी जी के आगे सर झुकाना पड़ा। इसी तरह अंधविश्वास के अंधकार में वैदिक प्रकाश की अनुभूति सभी को होने लगी थी।

आर्य भाषा (हिंदी) का महत्व :

वैदिक प्रचार के उद्देश्य से स्वामी जी देश के हर हिस्से में व्यख्यान देते थे, संस्कृत में प्रचंड होने के कारण इनकी शैली संस्कृत भाषा ही थी। बचपन से ही इन्होने संस्कृत भाषा को पढ़ना और समझना प्रारंभ कर दिया था, इसलिए वेदों को पढ़ने में इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। एक बार वे कलकत्ता गए और वहाँ केशव चन्द्र सेन से मिले। केशव जी भी स्वामी जी से प्रभावित थे, लेकिन उन्होंने स्वामी जी को एक परामर्श दिया कि वे अपना व्यख्यान संस्कृत में ना देकर आर्य भाषा अर्थात हिंदी में दे, जिससे विद्वानों के साथ- साथ साधारण मनुष्य तक भी उनके विचार आसानी ने पहुँच सके। तब वर्ष 1862 से स्वामी जी ने हिंदी में बोलना प्रारम्भ किया और हिंदी को देश की मातृभाषा बनाने का संकल्प लिया।हिंदी भाषा के बाद ही स्वामी जी को कई अनुयायी मिले, जिन्होंने उनके विचारों को अपनाया। आर्यसमाज का समर्थन सबसे अधिक पंजाब प्रान्त में किया गया।

समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध एवम एकता का पाठ (Swami Dayanand Saraswati Thoughts)

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने समाज के प्रति स्वयम को उत्तरदायी माना और इसलिए ही उसमे व्याप्त कुरीतियों एवम अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज बुलंद की

बाल विवाह विरोध :

उस समय बाल विवाह की प्रथा सभी जगह व्याप्त थी, सभी उसका अनुसरण सहर्ष करते थे। तब स्वामी जी ने शास्त्रों के माध्यम से लोगो को इस प्रथा के विरुद्ध जगाया। उन्होंने स्पष्ट किया कि शास्त्रों में उल्लेखित हैं, मनुष्य जीवन में अग्रिम 25 वर्ष ब्रम्हचर्य के है, उसके अनुसार बाल विवाह एक कुप्रथा हैं। उन्होंने कहा कि अगर बाल विवाह होता हैं, वो मनुष्य निर्बल बनता हैं और निर्बलता के कारण समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त होता हैं।

सती प्रथा विरोध :

पति के साथ पत्नी को भी उसकी मृत्यु शैया पर अग्नि को समर्पित कर देने जैसी अमानवीय सति प्रथा का भी इन्होने विरोध किया और मनुष्य जाति को प्रेम आदर का भाव सिखाया। परोपकार का संदेश दिया।

विधवा पुनर्विवाह :

देश में व्याप्त ऐसी बुराई जो आज भी देश का हिस्सा हैं। विधवा स्त्रियों का स्तर आज भी देश में संघर्षपूर्ण हैं। दयानन्द सरस्वती जी ने इस बात की बहुत निन्दा की और उस ज़माने में भी नारियों के सह सम्मान पुनर्विवाह के लिये अपना मत दिया और लोगो को इस ओर जागरूक किया।

एकता का संदेश :

दयानन्द सरस्वती जी का एक स्वप्न था, जो आज तक अधुरा हैं , वे सभी धर्मों और उनके अनुयायी को एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे। उनका मानना था आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा लेता हैं, इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक हैं। जिसके लिए उन्होंने कई सभाओं का नेतृत्व किया लेकिन वे हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्मों को एक माला में पिरो ना सके।

वर्ण भेद का विरोध :

उन्होंने सदैव कहा शास्त्रों में वर्ण भेद शब्द नहीं, बल्कि वर्ण व्यवस्था शब्द हैं, जिसके अनुसार चारों वर्ण केवल समाज को सुचारू बनाने के अभिन्न अंग हैं, जिसमे कोई छोटा बड़ा नहीं अपितु सभी अमूल्य हैं। उन्होंने सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात रखी और वर्ण भेद का विरोध किया।

नारि शिक्षा एवम समानता :

स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया। उनका मानना था, कि नारी शिक्षा ही समाज का विकास हैं। उन्होंने नारी को समाज का आधार कहा। उनका कहना था, जीवन के हर एक क्षेत्र में नारियों से विचार विमर्श आवश्यक हैं, जिसके लिये उनका शिक्षित होना जरुरी हैं।

स्वामी जी के खिलाफ षड़यंत्र :

अंग्रेजी हुकूमत को स्वामी जी से भय सताने लगा था। स्वामी जी के वक्तव्य का देश पर गहरा प्रभाव था, जिसे वे अपनी हार के रूप में देख रहे थे, इसलिये उन्होंने स्वामी जी पर निरंतर निगरानी शुरू की। स्वामी जी ने कभी अंग्रेजी हुकूमत और उनके ऑफिसर के सामने हार नहीं मानी थी, बल्कि उन्हें मुँह पर कटाक्ष की जिस कारण अंग्रेजी हुकूमत स्वामी जी के सामने स्वयम की शक्ति पर संदेह करने लगी और इस कारण उनकी हत्या के प्रयास करने लगी। कई बार स्वामी जी को जहर दिया गया, लेकिन स्वामी जी योग में पारंगत थे और इसलिए उन्हें कुछ नहीं हुआ।

महर्षि दयानंद सरस्वती की मृत्यु कैसे हुई (Swami Dayanand Saraswati Death)

1883 में स्वामी दयानन्द सरस्वती जोधपुर के महाराज के यहाँ गये। राजा यशवंत सिंह ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। उनके कई व्यख्यान सुने। एक दिन जब राजा यशवंत एक नर्तकी नन्ही जान के साथ व्यस्त थे, तब स्वामी जी ने यह सब देखा और अपने स्पस्ट वादिता के कारण उन्होंने इसका विरोध किया और शांत स्वर में यशवंत सिंह को समझाया कि एक तरफ आप धर्म से जुड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ इस तरह की विलासिता से आलिंगन हैं, ऐसे में ज्ञान प्राप्ति असम्भव हैं। स्वामी जी की बातों का यशवंत सिंह पर गहरा असर हुआ और उन्होंने नन्ही जान से अपने रिश्ते खत्म किये। इस कारण नन्ही जान स्वामी जी से नाराज हो गई और उसने रसौईया के साथ मिलकर स्वामी जी के भोजन में कांच के टुकड़े मिला दिए, जिससे स्वामी जी का स्वास्थ बहुत ख़राब हो गया। उसी समय इलाज प्रारम्भ हुआ, लेकिन स्वामी जी को राहत नही मिली। रसौईया ने अपनी गलती स्वीकार कर माफ़ी मांगी। स्वामी जी ने उसे माफ़ कर दिया। उसके बाद उन्हें 26 अक्टूबर को अजमेर भेजा गया, लेकिन हालत में सुधार नहीं आया और उन्होंने 30 अक्टूबर 1883 में दुनियाँ से रुक्सत ले ली।

अपने 59 वर्ष के जीवन में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने राष्ट्र में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लोगो को जगाया और अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को देश में फैलाया। यह एक संत के रूप में शांत वाणी से गहरा कटाक्ष करने की शक्ति रखते थे और उनके इसी निर्भय स्वभाव ने देश में स्वराज का संचार किया।

महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती 2024 में कब है? (Maharishi Dayanand Saraswati jayanti 2024)

महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती इस साल 5 मार्च दिन मंगलवार, को मनाई जाएगी।

FAQ

Q : महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती 2024 में कब है?

Ans : 5 मार्च

Q : महर्षि दयानंद सरस्वती के पिता कौन थे?

Ans : अंबाशंकर तिवारी

Q : महर्षि दयानंद सरस्वती के नाम पहले क्या था?

Ans : मूलशंकर तिवारी

Q : महर्षि दयानंद सरस्वती की मृत्यु कैसे हुई?

Ans : बीमारी के कारण

Q : महर्षि दयानंद सरस्वती की मृत्यु कब हुई?

Ans : साल 1883


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